फिर यूँ हुआ के आँख से आंसू निकल पड़े "फुरकान"
चेहरा कभी जो उसका खयालो में आ गया
चेहरा कभी जो उसका खयालो में आ गया
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काश की ये दिल अपने इख्तियार में होता
न किसी की याद आती न किसी से प्यार होता
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मै लोट कर न आऊंगा तू मिन्नतें हज़ार कर
ये उम्र भर रुलाएगा न दिल पे इख़्तियार कर
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एक थी मंजिल हमारी एक थी रहे सफ़र
चलते -२ तुम उधर और हम इधर कैसे हुए
हादसे होते ही रहते है मगर ये हादसे "फुरकान"
इक ज़रा सी ज़िन्दगी में इस कदर कैसे हुए
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तुम उसे के नहीं होते जिसे अपना कह दो
वो किसी का नहीं रहता जो तुम्हारा हो जाये
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सहर हुई भी तो हमने दिए बुझाये नहीं
के जिनको आना था वो लोग अब भी आये नहीं
वो चंद चेहरे जो अब तक बसे हैं आँखों में
वो चंद लोग जो हमने कभी भुलाये नहीं
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अपनी तस्वीर बनोगे तो होगा एहसास
कितना दुश्वार है खुद को कोई चेहरे देना
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खूबियाँ भी उसमे कुछ होंगी ज़रूर
क्यूँ किसी के ऐब ही देखा करो
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हम सभी कुछ थे, पर तेरे हक में
वो नहीं थे जो बददुआ करते
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तू सब तरह से ज़ालिम मेरा सब्र आजमा लें
तेरे हर सितम से मुझको नए होसले मिलेंगे
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फिर यूँ हुआ के आँख से आंसू निकल पड़े
चेहरा कभी जो उसका खयालो में अ गया
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काश की ये दिल अपने इख्तियार में होता
न किसी की यद् आती न किसी से प्यार होता
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मै लोट कर न आऊंगा तू मिन्नतें हज़ार कर
ये उम्र भर रुलाएगा न दिल पे इख़्तियार कर
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तू है बेजार तो जा हमने तुझे छोड़ दिया "फुरकान"
ज़िन्दगी हम भी तुझे टूट के चाहे कब तक
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एक थी मंजिल हमारी एक थी रहे सफ़र
चलते -२ तुम उधर और हम इधर कैसे हुए
हादसे होते ही रहते है मगर ये हादसे
इक ज़रा सी ज़िन्दगी में इस कदर कैसे हुए
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तुम उसे के नहीं होते जिसे अपना कह दो
वो किसी का नहीं रहता जो तुम्हारा हो जाये
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अपनी तस्वीर बनोगे तो होगा एहसास "फुरकान"
कितना दुश्वार है खुद को कोई चेहरे देना --------
जब से उस पर शबाब आया है
अहले दिल पे अजाब आया है
जब भी वो बेनकाब आया है
हर तरफ इन्किलाब आया है
रत क्या खूब ख्वाब आया है
मेरे घर महताब आया है
खैर हो दिल की उसके कूंचे में
तेरा दीदार हो गया जैसे
सामने एक गुलाब आया है
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देख ऐ ज़ालिम दिलो-जां की तमन्ना रह गई
तुझसे सुनने के लिए हाँ की तमन्ना रह गई
हो गए बेहोश जब मूसा तो खालिक ने कहा
अब न कहाँ चश्मे हैरां की तमन्ना रह गई
जब सफिने को मेरे दरिया का साहिल मिल गया
अहले साहिल चुप थे तूफां की तमन्ना रह गई
आजतक परवाज़ करते है खलाओ में मगर
आसमा छूने की इन्सा को तमन्ना रह गई
बेटियां आँगन की रोनक थी मगर आखिर
एक बेटे के लिए माँ की तमन्ना रह गई
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उसकी आँखों में उतर जाने को जी चाहता है
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
किसी कम ज़र्फ़ को बज़र्फ़ अगर कहना पड़े
ऐसे जीने से तो मर जाने को जी चाहता है
एक एक बात में सचाई है उसकी लेकिन
अपने वादों से मुकर जाने को जी चाहता है
क़र्ज़ टूटे हुए वादों का अदा हो जाये
ज़ात में अपनी बिखर जाने को जी चाहता है
अपनी पलकों पे सजाए हुए यादो के दिए
उसकी नींदों से गुज़र जाने को जी चाहता है
एक उजड़े हुए वीरान खंडर में "फुरकान"
नामुनासिब है मगर जाने की जी चाहता है
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